Thursday, March 27, 2008

8.19 अतिथि-सत्कार

[कहताहर - कुलवन्ती देवी, चुटकिया बाजार, सिमली शाहदरा, पटना सिटी]

एगो अदमी अपना के भारी शहंशाह समझऽ हलक बाकि ऊ हलक भारी कंजूस । से ओकरा हीं कोय अतिथि जदि आवऽहलक तऽ ऊ ओकरा कोय-न-कोय बहाना बना के टरका दे हलक ।

एक तुरी ओकर एगो बड़ा पुराना इयार ओकर घर आयल । अयला पर ऊ ओकरा अप्पन बैठका में बैठयलक, ओकर कुसल-क्षेम पुछलक आउ बचपन के इयाद करके हँसी-मजाक कयलक । ओकरा पैर धोवे ला ऊ पानी भी मँगौलक ।

भोर के बेरिया हल । जब बातचीत करइत कुछ समइया बीत गेल तऽ अप्पन बोली में असीम प्यार भर के ऊ कहलक - "आज एकादसी हवऽ । हमनी हीं सबकी उपवास हवऽ । कल रात के कुछ बासी बचल तऽ हे बाकि तूँ बसिया तो खैबऽ नऽ । से ई घरवा से निकलला पर अगलके मोड़ पर बंसी हलवाई के दूकान हवऽ । से तूँ उहाँ कचौरी जलेबी भरपेट जरूर खा लिहऽ, तोरा हम्मर किरिया ।"

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