Wednesday, March 5, 2008

4.12 सोना के अँगूठी (1.24 के रूपान्तर)

[ कहताहर - सूर्यदेव सिंह, मो॰ - दनई, पो॰ - जाखिम, जिला - गया ]

एगो राजा आउ वजीर के लइका में बड़ी दोस्ती हल । एक के दोसर के बिना चैन न रहऽ हल । एक दिन वजीर के बेटा इयार से मिले गेलन तो ओकरा दूरा पर न पाके रनिवासे में चल गेलन आउ निसा में राजा के न रहे पर रानी के पलंग सूत गेलन । नीन खुलल तो चेहाके उहाँ से चल अयलन बाकि उनकर अँगूठी पलंग पर गिर गेल । राजकुमार अयलन तो इयार के अँगूठी देखके रानी से बोल-चाल बंद कर देलन । ई देख के रानी नइहर में चिट्ठी लिखलन –

बाबा बाग लगायके, लाखो-लाख लुटाय ।
रस से भरी रसीली में, भौंरा घुर-फिर जाय ।।

बाप ई पाँती पढ़ के बेटा के नउवा के साथ बेटी हीं भेजलन । इहाँ दोसर दिन साँझ के राजा के बेटा, वजिर के बेटा आउ उनकर साला आउ नउवा एगो पोखरा पर जाके चउपड़ खेले लगलन । खेलते-खेलते सालाराम कहलन कि -

निरमल जल तलाब में, अति ही पवित्र-पवित्र ।
सो जल काहे न पिये, सुनहुँ हमारे मित्र ।। सत् रह ।।

तब राजा एतना सुनके मन-ही-मन सोच के कहलन -

कर पंजे के बीच में, तामें लाल समाय ।
सो मैं देखा पलंग पर, नीर पिया न जाय ।। सत् रह ।।

एतना सुनके चौपड़ खेलते वजीर के लड़का कहलन -

घटा गरजे, बिजली चमके, लागे न काहूँ अंत ।
माय-बहिनिया जान के, गये पलंग पर बैठ ।। सत् रह ।।

एकरा बाद नउवा के पाँसा आयल तो सोंच के कहलन -

चतुरन में चतुरन मिले, लगे न काहूँ अंत ।
अभाग हे ऊ नारी के, कि मूरुख मिलल कंत ।। सत् रह ।।

ई सब सुन के राजा असलियत समझ गेलन आउ ऊ दिन से रानी के साथ मिल के रहे लगलन ।

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