Monday, February 11, 2008

1.13 कुटनी बुढ़िया

[ कहताहर - पनकुरी देवी, ग्राम - बेलखरा, जिला - जहानाबाद ]

एगो जंगल में एगो कुटनी बुढ़िया रहऽ हल । उहाँ पाँच-छव गो गाय-भइँस के चरवाहा ढोर चरावे जा हलन । एक रोज छवो साथी मिल के चूहा पकड़लन आउ ओकरा पका के खाय ला आग खोजे चललन । ओहनी ऊ कुटनी बुढ़िया भिरू धुआँ देखलन । ओकरा में से एगो कुटनी भिरू जा के आग माँगलक । तब कुटनी बुढ़िया कहलक - नऽ हमरा हाथ हे, नऽ हमरा गोड़ हे, नऽ हमरा आँख हे, नऽ हमरा कान हे, से अपने ले लऽ बाबू । हम खाली तमाकुल पीये ला आग रखले रहऽ ही । अपने काढ़ के ले लऽ बाबू । ऊ लइका आग काढ़े गेल । बस, कुटनी बुढ़िया उठल आउ ओकरा एके 'कउर' में निगल गेल । इहाँ इयार सब सोचलन कि ऊ कहाँ रह गेल । तब दूसर इयार के आग ला भेजलन । कुटनी बुढ़िया उनकरो एके कउर में खा गेल । ओइसहीं ऊ बुढ़िया पाँच साथी के खा गेल । छठा साथी बड़ी फेर में परल कि ओहनी सब कहाँ चल गेलन । ऊ कुटनी बुढ़िया भिरू गेल आउ जल्दी से आग माँगलक आउ बतौला पर आग काढ़े लगल । बुढ़िया जइसहीं खाय ला मुँह खोललक तइसहीं मुँह पर एक थप्पड़ मारलक तऽ ओकर एक साथी निकलल । ई तरी पाँच थप्पड़ में पाँचो साथी निकल गेलन । फिनो सबे मिलके मौज से रहे लगलन ।

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