Sunday, February 10, 2008

1.06 गुरु गुड़ चेला चीनी

[ कहताहर - सूर्यदेव सिंह, ग्राम - दनई, रफीगंज, जिला - गया ]

एगो हलन बाबा जी । दिन माँगथ तो सवा सेर आउ रात माँगथ तो सवे सेर । उनका कभी पेट न भरे । उनका दूगो लइकन हलन । बाबा जी सोचथ कि एहनी के कहिना पाठसाला में बइठाऊँ ? गरीबी से उनका बइठाबल न बनऽ हल । सपरते-सपरते दूनो लइकन सेआन हो गेलन । एक दिन उनकर दूरा पर बेर डूबइत एगो साधु पहुँचलन आउ कहलन कि 'मिले जजमान, मिले जजमान !' एकरा पर बाबा जी कहलन कि तोरा दिन भर माँगे से पेट न भरलवऽ तो बेरिया डूबे माँगे से पेट भर जतवऽ । साधु जी कहलन कि तूँ काहे ला खिसिआइत हऽ । तूँ ई दूनो लइकवन के पठसाला में न भेजऽ ? बाबा जी कहलन कि गरीबी से पाठसाला में भेजल पार न लगइत हे । साधु जी कहलन कि हमरा दूनो लइकवन के दे दऽ । हम पढ़ा दीवऽ लेकिन हम एक लेइकवा के ले लववऽ । बाबा जी दूनो परानी राय करके पढ़े ला साधु जी के दे देलन । साधु जी कहलन कि चार महीना कि बाद तूँ हमरा ही अइहँ । साधु जी लइका लेके चल अयलन । बड़का के बिसटी पेन्हा के बकरी चरावे ला भेज देलन । ऊ रोज बकरी चरावल करे । छोटका के सब गुन से भर देलन ।

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